"............तसवीर
का एक हिस्सा लगभग
वैसा ही है, जैसा
1985 में था. शाहबानो नाम
की एक महिला तलाक़
के बाद अपने और
अपने पाँच बच्चों के
गुज़र-बसर का ख़र्च
पति से माँगने सुप्रीम
कोर्ट गयी थी. इस
बार तीन तलाक़ के
ख़िलाफ़ शायरा बानो ने सुप्रीम
कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया
है. शाहबानो मुक़दमा जीत गयी. शायरा
बानो के मामले में
फ़ैसला अभी आना है.
शाहबानो मामले पर मुसलिम पर्सनल
लॉ बोर्ड और उलेमा ने
बड़ा विरोध किया. शायरा बानो मामले पर
भी वैसा ही विरोध
सामने आ रहा है.
मसजिदों से लेकर घरों
तक में मुसलिम पुरुषों-महिलाओं से करोड़ों दस्तख़त
जुटाये जा रहे हैं
कि पर्सनल लॉ में कोई
छेड़छाड़ उन्हें मंज़ूर नहीं. सरकार को कड़ी चेतावनी
जारी की जा चुकी
है कि अगर ऐसा
करने की कोशिश की
गयी तो अंजाम 'कुछ
भी' हो सकता है!
कुल मिला कर 'सीन'
वही है, जो 1985 में
था. बस फ़र्क़ एक
है. तब केन्द्र में
काँग्रेस की सरकार थी,
आज बीजेपी की सरकार है.
1985 में
काँग्रेस की सरकार ने
नया क़ानून बना कर सुप्रीम
कोर्ट के फ़ैसले को
पलट दिया था. अब
अगर सुप्रीम कोर्ट तीन तलाक़ पर शायरा बानो के हक़
में फ़ैसला देता है, तो
क्या नरेन्द्र मोदी सरकार मुसलिम
कट्टरपंथियों के आगे घुटने
टेकेगी? जवाब सबको मालूम
है. ऐसा क़तई नहीं
होगा. नरेन्द्र मोदी ख़ुद ऐसा
इशारा दे ही चुके
हैं. और बीजेपी क्यों
करेगी ऐसा? मुसलमानों के
वोट की उसे चिन्ता
नहीं है. और बीजेपी
से ऊपर संघ भला
क्यों करना चाहेगा ऐसा?
संघ के एजेंडे के
लिए यह मुद्दा तो
जैसे आसमान से टपका है!1985
और 2016 का फ़र्क़ यही
है......"
यह है तीन तलाक़ पर मौजूदा परिदृश्य. फ़िलहाल यह मुद्दा उत्तर प्रदेश चुनाव में गरमा रहा है. अब अगर इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला शायरा बानो के पक्ष में गया, तो देश की राजनीति की तसवीर क्या होगी? और क्या 2019 के लोकसभा चुनाव में 'हिन्दू लहर' क्या यूनिफ़ार्म सिविल कोड के मुद्दे पर आयेगी?
'राग देश' में क़मर वहीद नक़वी के विश्लेषण को विस्तार से पढ़िए इस लिंक पर: